भारत का संवैधानिक विकास
भारत में संविधान के विकास की पृष्ट भूमि की शुरुआत कम्पनी के द्वारा भारत में किये गये शासन के दौरान हुई। कम्पनी व कम्पनी के कर्मचारियों के द्वारा की जा रही मनमानी के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार के द्वारा समय-समय पर कई एक्ट लाये। इस प्रकार सविधान के विकास की शुरुआत हुई।
भारत का संवैधानिक विकास
भारत के सवैधानिक विकास को निम्न दो भागो में बाटा जा सकता है-
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत पारित अधिनियमों द्वारा(1773-1853)
- ब्रिटिश ताज के अंतर्गत पारित अधिनियमो द्वारा(1858-1947)
रेग्युलेटिंग एक्ट 1773
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी पर संसदीय नियंत्रण की शुरुआत।
- बंगाल का गवर्नर अब बंगाल का गर्वनर जनरल बना(प्रथम वारेन हेस्टिंग्स)।
- मद्रास और बम्बई की प्रेसीडेन्सी अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के अधीन।
- शासन संचालन हेतु 4 सदस्यीय परिषद ( 4 पार्षद-फिलिप फ्रांसिस क्लेवरिंग मॉनसन तथा बरवैल) गठित निर्णय बहुमत से और बंधनकारी।
- गवर्नर जनरल का दो मत पहला सामान्य और दूसरा अघ्यक्षीय ।
- BIEC के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर रोक तथा भारतीयों से उपहार दान आदि लेना प्रतिबंधित किया गया।
- 1774ः कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना ( प्रथम मुख्य न्यायाधीश-इलिजाह इम्पे। अन्य न्यायाधीश- चेम्बर्स लिमेस्टर एवं हाइड)
1773-1833 | बंगाल का गवर्नर जनरल (प्रथम-वारेन हेस्टिंग्स) | BEIC (रेग्युलेटिंग एक्ट 1773) |
1833-1853 | भारत का गवर्नर जनरल (प्रथम -विलियम बैटिंक) | BEIC (1833 का चार्टर) |
1858-1947 | भारत के वायसराय ( प्रथम -लार्ड कैनिंग) | ब्रिटेन का शासक(1858 का अधिनियम) |
1947-1950 | भारत के गर्वनर जनरल (प्रथम- लॉर्ड माउन्टबेटेन) | ब्रिटेन का शासक (भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947) |
एक्ट ऑफ सेटलमेंट-1781
- इस अधिनियम द्वारा भारत में सरकार को सहयोग देने राजस्व के नियमित संकलन तथा भारतीयों के प्राचीन विधियों तथा परम्पराओं को मान्यता देने पर बल दिया गया।
- कम्पनी के कर्मचारी अपने शासकीय रुप में किये गए कार्यो के लिए सर्वाच्च न्यायालय के अधिकारिता से बाहर हो गया ।
- कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उडीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
पिटस इंडिया एक्ट 1784
इसे ब्रिटिश संसद में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
प्रमुख प्रावधान
- कम्पनी के व्यापारिक और राजनैतिक कार्य अलग-अलग हुए।
- व्यापारिक कार्य:निदेशक मण्डल की देख रेख में होने लगे।
- राजनैतिक कार्यः6 सदस्यी ( चांसलस ऑफ एक्सचेकर, राज्य सचिव + 4 प्रिसी कौंसिल के सदस्य) नियंत्रण बोर्ड का गठन।
- द्वैध शासन व्यवस्था की शुरुआत।
- गवर्नर जनरल की परिषद को 3 सदस्यीय कर दिया गया।
- भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन क्षेत्रों पर ब्रिटिश ताज के स्वामित्व के दावे का यह पहला वैधानिक दस्तावेज था।
1786 का अधिनियम
- बंगाल के गवर्नर जनरल को मुख्य सेनापति का दायित्व प्रदान कर दिया गया।
- अब गवर्नर जनरल विशेष परिस्थितियों में परिषद के निर्णय को निरस्त कर सकता था तथा अपने निर्णय को लागू कर सकता था।
चार्टर एक्ट 1793
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार 20 वर्षों के लिए पुनर्जीवित किया गया।
- बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अधिकारियों का वेतन भारतीय कोष से दिया जाने लगा।
चार्टर एक्ट 1813
- BEIC के चार्टर को 20 वर्षों के लिए आगे बढ़ा दिया गया।
- कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया (सिवाय चाय व्यापार और चीन व्यापार के)
- भारत में ईसाई मिशनरियों के प्रवेश की अनुमति प्रदान की गई।
- भारत में शिक्षा के लिए एक लाख प्रतिवर्ष खर्च करने का प्रावधान किया गया।
- राजा की भारत पर संप्रभुता स्पष्ट रूप से बता दी गई-अब कंपनी को गवर्नर जनरल, गर्वनरो तथा प्रधान सेनापति की नियुक्ति हेतु ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति आवश्यक कर दी गई।
- कलकत्ता, बम्बई, और मद्रास परिषदों द्वारा बनाए गए कानूनों का ब्रिटिश संसद द्वारा अनुमोदन अनिवार्य कर दिया गया।
चार्टर एक्ट 1833
- बंगाल के गवर्नर जनरल को अब भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया(प्रथम-लॉर्ड विलियम बेंटिक)
- भारत के गवर्नर जनरल को संपूर्ण भारत में असीमित विधायी शक्तियां प्रदान की गई मद्रास और मुंबई के गवर्नरो ने अपनी ताकत खोई।
- कंपनी का व्यापारिक अधिकार पूर्णरूपेण समाप्त(चाय और चीन व्यापार भी)
- अब भारत की परिषद में 4 सदस्य कर दिए गए,पहले 3 हमेशा उपस्थित और चौथा केवल कानून बनाते समय उपस्थित रहता था।
- भारतीय कानूनों को संहिताबद्ध तथा सुधारने की भावना से लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में एक विधि आयोग का गठन किया गया।
- गवर्नर जनरल द्वारा बनाए गए कानूनों को अब अधिनियम कहा गया जबकि इससे पूर्व इसे विनिमय कहा जाता था।
- अधिनियम की धारा 87-कंपनी की नौकरियों में धर्म जाति वंश रंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध(कोर्ट ऑफ डायरेक्टर के विरोध के कारण लागू नहीं हुआ)।
चार्टर एक्ट 1853
- कंपनी के अधिकार पत्र को अनिश्चितकाल के लिए बढ़ाया गया।
- निदेशक मंडल के सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें से 6 सदस्य राजा द्वारा नियुक्त किए जाते थे।
- विधि सदस्य गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
- गवर्नर जनरल की कार्यकारी और विधायी शक्तियां और अलग-अलग कर दी गई।
- गवर्नर जनरल की विधायी परिषद 12 सदस्य हुई। 6 नए सदस्य जोड़े गए (मद्रास, बम्बई, बंगाल, आगरा प्रत्येक से एक सदस्य, एक न्यायाधीश व कनिष्क न्यायाधीश)
- इस अधिनियम के द्वारा केंद्रीय विधान परिषद में सर्वप्रथम क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया गया।
- सिविल सेवकों का चयन नामजदगी के स्थान पर खुली प्रतियोगिता के जरिए होना प्रारंभ किया गया। इस हेतु 1854 मैं मैकाले समिति का गठन किया गया
- बंगाल के लिए प्रथक लेफ्टिनेंट गवर्नर की व्यवस्था की गई।
भारत शासन अधिनियम 1858
- भारत से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त । भारत अब ब्रिटिश ताज के प्रत्यक्ष नियंत्रण में आ गया।
- निदेशक मंडल, नियंत्रण मंडल का अंत कर दिया गया।
- भारत के सचिव नामक एक नए पद का सृजन तथा उसकी सहायता हेतु 15 सदस्य भारत परिषद की स्थापना इनका वेतन व अन्य खर्च भारतीय राजस्व से दिया जाता था।
- भारत के गवर्नर जनरल पदनाम को बदलकर अब भारत का वायसराय कर दिया गया (प्रथम लॉर्ड कैनिंग)।
भारतीय परिषद अधिनियम 1861
- विकेंद्रीकरण की शुरुआत-मद्रास और मुंबई प्रेसीडेन्सी को विधाई शक्तियां लौटा दी गई।
- वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्यों की संख्या 4 से बढ़ाकर 5 कर दी गई । पांचवें सदस्य को विधि बेत्ता होना अनिवार्य था।
- वायसराय की विदाई परिषद में वृद्धि अब कम से कम 6 और अधिक से अधिक 12 सदस्य हो सकते थे (सभी मनोनीत) ।इनमें से आधे सदस्यों का गैर सरकारी होना अनिवार्य था । इनका कार्यकाल 2 वर्ष होता था।
- परिषद का कार्य केवल सलाह देना था।
- 1862 मैं वायसराय लॉर्ड कैनिंग द्वारा तीन भारतीयों(बनारस के महाराज ईश्वरी नारायण सिंह, पटियाला के महाराज नरेंद्र सिंह और सर दिनकर राव) विधान परिषद मैं मनोनीत किया गया।
- वायसराय की कार्यकारी परिषद अब विभागीय प्रणाली पर चलने वाला मंत्रिमंडल बना। भारत में मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की आधारशिला शुरुआत हुई।
- मंत्रिमंडल कुल 6 सदस्य-ग्रह, राजस्व, सेना,, कानून, वित्त वॉल्यूम निर्माण।
भारतीय परिषद अधिनियम 1861
- वायसराय को अध्यादेश जारी करने का अधिकार मिला. इसकी अवधि 6 माह थी।
- वायसराय अब नए प्रांत बना सकते थे, और एलजी की नियुक्ति कर सकते थे।
- इन प्रांतों में विधान परिषद का गठन हुआ- बंगाल(1886), NWFP(1886), पंजाब(1897)।
- भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम-1861 के तहत 1862 में मुंबई, मद्रास और कोलकाता में उच्च न्यायालय की स्थापना हुई।
शाही उपाधि अधिनियम 1861
- महारानी विक्टोरिया को ” भारत की सामग्री/केसर ए हिंद की उपाधि” से विभूषित किया गया।
- इसकी घोषणा हेतु लॉर्ड लिटन द्वारा 1 जनवरी 1877 को प्रथम दिल्ली दरबार का आयोजन किया ।
- 1876-78 की भीषण अकाल के समय किए गए इस भव्य आयोजन की बहुत आलोचना की गई।
- आर. जी. प्रधान के शब्दों में ” राज उपाधि अधिनियम और दिल्ली दरबार से एक राष्ट्रीय अपमान की गुप्त भावना की जनता में फैल गई”।
- कोलकाता की एक पत्रिका में इसकी तुलना उस घटना से की जब” नीरो बंसी बजा रहा था और रूम जल रहा था”।
भारतीय परिषद अधिनियम1892
- केंद्रीय विधान परिषद में सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई इसमें अब कम से कम 10 और अधिक से अधिक 16 सदस्य हो सकते थे। 16 सदस्य-6 सरकारी +5 गैर सरकारी मनोनीत+ 5 सुने हुए- एक वाणिज्य मंडल से तथा 4 प्रांतों से 4 प्रतिनिधि(प्रांतीय प्रतिनिधित्व पुनर्स्थापित)।
- प्रांतीय विधान परिषद में भी भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई। बम्बई, बंगाल और मद्रास से कम से कम 8 और अधिक से अधिक 20 सदस्य हो सकते थे। जबकि NWFP मैं अधिक से अधिक 15 सदस्य हो सकते थे।
- पहली बार चुनाव और प्रतिनिधित्व की बात सामने आई जो इस अधिनियम की सबसे प्रमुख विशेषता थी।
- जिला बोर्ड, नगर पालिका, विश्वविद्यालय, तथा वाणिज्य मंडल, प्रांतीय विधान परिषदो में अपने प्रतिनिधि भेज सकते थे।
- बजट पर बहस और जनहित के मुद्दे पर परिषद सरकार से प्रश्न पूछ सकती थी, किंतु मतदान करने या अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था।
भारतीय परिषद अधिनियम 1909(मार्ले-मिंटो सुधार)
- यह अधिनियम संवैधानिक प्रयोग में सबसे अल्पकालिक है।
- मुसलमानों के लिए प्रथम निर्वाचन की व्यवस्था की गई।
- विधान परिषदों की शक्ति में वृद्धि, सदस्यों को बजट की विवेचना करने, जनहित के मुद्दे पर चर्चा करने, तथा अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार मिला।
- केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों का आकार बढ़ाया गया।
- केंद्रीय विधान परिषद की सदस्य संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई।
- केंद्र कुल 69 सदस्य: 37 सरकारी और 22 गैर सरकारी
- 27 चुने हुए-2 विशेष वर्ग प्रतिनिधि(मुंबई और कोलकाता के वाणिज्य मंडल), 13 सामान्य निर्वाचन मंडल, 12 विशेष निर्वाचन मंडल( 6 जमींदार व 6 मुस्लिम)।
- प्रांत: बड़े प्रांतों(मुंबई, मद्रास, बंगाल, उत्तर प्रदेश) मैं 50 सदस्य तथा छोटे प्रांतों में 30 सदस्य।
- पहली बार वायसराय के कार्यकारी परिषद में एक भारतीय सत्येन्द्र प्रसाद सिन्हा का विधि सदस्य के रूप में प्रवेश।
- पहली बार भारत परिषद लंदन में दो भारतीयों-के. सी. गुप्ता और सैयर हुसैन बिलग्रामी का प्रवेश।
- पृथक निर्वाचन मंडल का प्रमुख विचार।
- जवाहरलाल नेहरू ने मार्ले मिंटो सुधार के बारे में कहा” इनसे उनके चारों ओर राजनीतिक प्रतिरोध बन गए जिन्होंने उन्हें शेष भारत से अलग कर दिया जिससे शताब्दियों से आरंभ हुए एकता के सभी प्रयत्नो को उलट दिया गया”।
- महात्मा गांधी के शब्दों में” मार्ले -मिंटो सुधार ने हमारा सर्वनाश कर दिया”।
- लॉर्ड मिंटो (सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था का जनक)-” हम ना कि दांत बो रहे हैं जिसका फल भीषण होगा”।
- के एम मुंशी-” इन्होंने उभरते हुए प्रजातंत्र को जान से मार डाला”
भारत शासन अधिनियम 1919 (मोंटेग्यू- चेम्सफोर्ड सुधार)
- 1919 का अधिनियम भारतीयों के होमरूल की मांग के रूप में आया।
- केंद्र में पहली बार द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित हुई तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था आरंभ हुई।
- पहली बार महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया गया।
- सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचन प्रणाली का विस्तार -अब पृथक निर्वाचन-सिक्खो, ईसाइयों , आंग्ल भारतीय तथा यूरोपीय को भी मिला।
- पहली बार केंद्रीय और प्रांतीय बजट अलग अलग हुए।
- केंद्र और प्रांतीय विषयों को अलग अलग किया गया।
- प्रांतीय परिषदों का आकार बढ़ाया गया।
- प्रांतों के लिए दो तरह की सरकार प्रस्तावित हुई । द्वैध शासन व्यवस्था प्रारंभ।
- एक लोक सेवा आयोग का गठन हुआ।
- वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य में से(commander-in-chief को छोड़कर) ३ भारतीय सदस्य होने आवश्यक।
- भारत राज्य सचिव का वेतन अब ब्रिटिश राजस्व से दिया जाने का प्रस्ताव किया गया।
- एक नए पद भारतीय उच्चायुक्त का सृजन किया गया।
- एक वैधानिक आयोग का गठन जो 10 वर्ष के बाद इसकी जांच करेगा।
भारत सरकार अधिनियम 1935
- विस्तृत दस्तावेज-10 अनुसूची, 14 भाग तथा 321 अनुच्छेद। भारत के संविधान पर सर्वाधिक प्रभाव।
- द्वैध शासन का प्रांतों में अंत और प्रांतीय स्वायत्तता प्रारंभ।
- अब द्वैध शासन व्यवस्था को केंद्र के लिए प्रस्तावित किया गया।
- भारत का परिसंघ बनेगा-ब्रिटिश भारत+ रियासतें।
- संघीय न्यायालय की स्थापना जिसके निर्णय के विरुद्ध प्रिवी काउंसिल में अपील की जा सकती थी।( प्रथम मुख्य न्यायाधीश सर मौरिस ग्वैयर)
- शासन की 3 सूचियां बनाई गई।
- वर्मा को भारत से अलग किया गया तथा सिंध और उड़ीसा को दो नए प्रांत बनाए गए।
- भारत परिषद को समाप्त कर दिया गया।
- मताधिकार का विस्तार अब लगभग 10 % भारतीय मताधिकार के योग्य।
- भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना।
- इस अधिनियम के माध्यम से भारत में संवैधानिक निरंकुशता के सिद्धांत को प्रवृत किया गया।
इस प्रकार भारत का संवैधानिक विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी व ब्रिटिश शासन के अधीन किये गये सुधारो के द्वारा हुआ। जोकि कम्पनी की मनमानी को सीमित करने व भारत में शासन की सहुलियत की दृष्टी से लाये गये। इन्ही सुधारो से संवैधानिक विकास की पृष्ट भूमि तैयार हुई। संविधानिक विकास का यह क्रम स्वतंत्र भारत में आज भी जारी है।